देही तो कपाल का करही गोपाल: छत्तीसगढ़ की लोक-कथा


Dehi To Kapaal Ka Karhi Gopal: Lok-Katha (Chhattisgarh)
देही तो कपाल का करही गोपाल: छत्तीसगढ़ की लोक-कथा
बहुत पहले की बात है। एक ब्राह्मण और एक भाट में गहरी दोस्ती थी। रोज़ शाम को दोनों मिलते थे और सुख-दुख की बाते कहते थे। दोनों के पास पैसे न होने के कारण दोनों सोचा करते थे कि कैसे थोड़े बहुत पैसा का जोगाड़ करे।

एक दिन भाट ने कहा - "चलो, हम दोनों राजा गोपाल के दरबार में चलते हैं। राजा गोपाल अगर खुश हो जाये, तो हमारी हालत ठीक हो जाये।"
ब्राह्मण ने कहा -

"देगा तो कपाल (किस्मत / तकदीर)
क्या करेगा गोपाल"

भाट ने कहा - "नहीं, ऐसा नहीं।

देगा तो गोपाल,
क्या करेगा कपाल"

दोनों में बहस हो गई। ब्राह्मण बार-बार यही कहता रहा

देही तो कपाल
का करही गोपाल।

भाट बार-बार कहता रहा - "राजा गोपाल बड़ा ही दानी राजा है। वे अवश्य ही हमें देगा, चलो, एक बार तो चलते है उनके पास, कपाल क्या कर सकता है - कुछ भी नहीं -

दोनों में बहस होने के बाद दोनों ने निश्चय किया कि राजा गोपाल के दरबार में जाकर अपनी-अपनी बात कही जाए।

इस तरह भाट और ब्राह्मण एक दिन राजा गोपाल के दरबार में पहुँचे और अपनी-अपनी बात कहकर राजा को निश्चित करने के लिए कहने लगे।

राजा गोपाल मन ही मन भाट पर खुश हो उठे और ब्राह्मण के प्रति नाराज़ हो उठे। दोनों को उन्होंने दूसरे दिन दरबार में आने को लिये कहा।

दूसरे दिन दोनों जैसे ही राजा गोपाल के दरबार में फिर से पहुँचे, राजा गोपाल ने अपने देह रक्षक को इशारा किया। राजा के देह रक्षक ब्राह्मण को चावल, दाल और कुछ पैसे दिये। और उसके बाद भाट को चावल, घी और एक कद्दू दिया।
उस कद्दू के भीतर सोना भर दिया गया था।
राजा ने कहा - "अब दोनों जाकर खाना बनाकर खा लो। शाम होने के बाद फिर से दरबार में हाजिर होना।"
भाट और ब्राह्मण साथ-साथ चल दिए। नदी किनारे पहुँचकर दोनों खाना बनाने लग गये।

भाट ब्राह्मण की ओर देख रहा था और सोच रहा था - "राजा ने इसे दाल भी दी। मुझे ये कद्दू पकड़ा दिया। इसे छीलना पड़ेगा, काटना पड़ेगा और फिर इसकी सब्जी बनेगी। ब्राह्मण के तो बड़े मजे हैं। दाल झट से बन जायेगी। ऊपर से ये कद्दू अगर मैं खा लूँ, मेरा कमर का दर्द फिर से उभर आयेगी।"
भाट ने ब्राह्मण से कहा - "दोस्त, ये कद्दू तुम लेकर अगर दाल मुझे दे दोगे, तो बड़ा अच्छा होगा। कद्दू खाने से मेरे कमर में दर्द हो जायेगा।"
ब्राह्मण ने भाट की बात मान ली। दोनों अपना-अपना खाना बनाने में लग गये।

ब्राह्मण ने जब कद्दू काटा, तो ढेर सारे सोना उसमें से नीचे गीर गया। ब्राह्मण बहुत खुश हो गया। उसने सोचा -

देही तो कपाल,
का करही गोपाल

उसने सोना एक कपड़े में बाँध लिया और कद्दू की तरकारी बनाकर खा लिया। लेकिन कद्दू का आधा भाग राजा को देने के लिये रख दिया।

शाम के समय दोनों जब राजा गोपाल के दरबार में पहुँचे, तो राजा गोपाल भाट की ओर देख रहे थे, पर भाट के चेहरे पर कोई रौनक नहीं थी। इसीलिये राजा गोपाल बड़े आश्चर्य में पड़े। फिर भी राजा ने कहा - "देही तो गोपाल का करही कपाल" - क्या ये ठीक बात नहीं?

तब ब्राह्मण ने कद्दू का आधा हिस्सा राजा गोपाल के सामने में रख दिया।

राजा गोपाल ने एक बार भाट की ओर देखा, एक बार ब्राह्मण की ओर देखने लगे। फिर उन्होंने भाट से कहा - "कद्दू तो मैनें तुम्हें दिया था?" भाट ने कहा - "हाँ, मैनें दाल उससे ली। कद्दू उसे दे दिया" -
राजा गोपाल ने ब्राह्मण की ओर देखा -
ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा -

देही तो कपाल,
का करही गोपाल।

(डा. मृनालिका ओझा)




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